जब गर्मियों में आम की खुशबू और नानी का प्यार मिला करता था
- Anu Goel
- 4 days ago
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एक ऐसा बचपन, जो 90 के दशक के बच्चों ने जिया—और जिसे Gen Z शायद कभी न समझ पाए
"इस बार गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर चलेंगे?"
बस यही एक सवाल था, और पूरा साल रोशनी से भर जाता था।
90 के दशक के बच्चों के लिए गर्मी की छुट्टियाँ विदेश यात्रा या फाइव-स्टार रिज़ॉर्ट नहीं होती थीं।हमारे लिए सिर्फ एक मंज़िल होती थी: नानी का घर।
वो बस एक घर नहीं था।वो एक जादू था।
सफर ही असली रोमांच हुआ करता था
गर्मी की छुट्टी तब शुरू होती थी जब ट्रेन की टिकट कन्फर्म हो जाती थी।
हम फ्लाइट से नहीं जाते थे।हम ट्रेन से जाते थे। खुली खिड़की, गरम हवा, टिफिन में पराठे, और रस्सी से बंधे बैग।
“ट्रेन में भीड़ थी, शोर था, पसीना था—पर हर पल प्यार के करीब ले जा रहा था।”
हर स्टेशन पर कोई समोसा, चाय या ऑरेंज बर्फ का गोला ले आता। हम खिड़की की सीट के लिए लड़ते थे। और ट्रैक को देखते-देखते सपने बुनते थे।

कज़िन्स ही पहले बेस्ट फ्रेंड हुआ करते थे
जैसे ही नानी के घर पहुँचते, सबसे पहले पूछा जाता—"कितने कज़िन्स आ चुके हैं?"
सब एक ही कमरे में, ज़मीन पर बिछे गद्दों पर, तकिए और कहानियाँ बाँटते।न कोई मोबाइल, न कोई स्क्रीन। बस कैरम, लूडो और हँसी के ठहाके।
“स्क्रीन की ज़रूरत ही नहीं थी—हम एक-दूसरे ही पूरी दुनिया थे।”
लाइट जाती, तो मोमबत्ती जलती, और कोई न कोई डरावनी कहानी शुरू कर देता।कोई डर के मारे चिल्ला पड़ता—कहानी शुरू होने से पहले ही!
नानी का घर—खुशबू और प्यार से भरा एक संसार
जैसे ही घर में कदम रखते, खुशबू का समंदर आपका स्वागत करता—
बाल्टी में भरे आम
छत पर फैले मसाले
रसोई में सीटी देती कुकर और टीवी कम करने की आवाज़
और फिर—नानी की मुस्कान।
“आ गए मेरे बच्चे?” — वो अपनी साड़ी से हाथ पोंछते हुए कहतीं।
इस एक लाइन में जितना अपनापन था, उतना शायद किसी होटल की वेलकम ड्रिंक में भी नहीं होता।

न समर कैंप, न टाईमटेबल—बस पूरी आज़ादी
आज के बच्चे समर कैंप में पेंटिंग या कोडिंग सीखते हैं।हमने सीखा—पेड़ पर चढ़ना, बड़ा साइकिल चलाना, और पतंग उड़ाना।
न कोई प्लान, न टाइमटेबल। बस दिनभर खेलो, धूल में लथपथ हो जाओ, और जब भूख लगे या अंधेरा हो जाए, घर आ जाओ।
“हम थकते थे, गिरते थे, रोते थे, फिर हँसते थे—but बोर कभी नहीं होते थे।”
मुझे याद है एक बार नीम के पेड़ पर रस्सी से झूला बाँधा था, गिर गया।कज़िन हँसा, मैं रोया, और नानी ने आम पन्ना और एक थपकी दी।

एक घर जिसने हम सबको बड़ा किया
दस लोग एक कमरे में सोते थे।तकियों पर लड़ाई होती थी।रासना के फ्लेवर को लेकर बहस होती थी।हर गर्मी में वही पुरानी कहानियाँ सुनते—और फिर भी हँसते।
नानी की कहानियाँ जैसे इतिहास के धागों से हमें जोड़ देती थीं।
अब वो गर्मियाँ कहाँ गईं?
आज वो घर बंद पड़ा हो सकता है।कज़िन्स अब अलग-अलग शहरों या देशों में हैं।WhatsApp ने मुलाकातों की जगह ले ली है।ट्रेन की टिकट की जगह फ्लाइट्स ने ले ली है।और वक्त की जगह व्यस्तता ने।
पर कभी-कभी जब ट्रेन की सीटी सुनाई देती है, या आम की खुशबू आती है, तो दिल चुपचाप कहता है—
“नानी का घर बहुत याद आता है।”
वो एहसास ज़िंदा रखिए
शायद आप अपने बच्चों को वही बचपन नहीं दे पाएंगे।पर वो एहसास दे सकते हैं।
ट्रेन से कहीं जाएँ। नानी के पुराने घर को फिर से देख आएँ।ज़मीन पर सोने दें। वही डरावनी कहानियाँ सुनाएँ।
क्योंकि जो हमारे पास था, वो कोई जगह नहीं थी।वो एक एहसास था। और एहसास आगे दिए जा सकते हैं।
एक आख़िरी बात...
“रिज़ॉर्ट ने हमें यादें दीं, लेकिन नानी ने हमें बचपन दिया।”

उन्हें भुलाइए मत। कज़िन्स को कॉल कीजिए। ट्रेन बुक कीजिए। अपने बच्चों को बताइए—आपका दिल अब भी वहीं है...
जहाँ आम की खुशबू, रासना का स्वाद, और बिना शर्त प्यार मिला करता था।जहाँ नाम से पहले कोई आपको ‘बच्चे’ कहता था। जहाँ दिल था—वो था नानी का घर।
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