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विक्रम और बेताल – भाग ३ राजकुमारी रत्नावली का स्वयंवर वर – एक अनसुलझा रहस्य

काला आसमान, ठंडी हवाओं में पेड़ों की शाखाएँ किसी बूढ़ी चुड़ैल की उँगलियों-सी हिल रही थीं। राजा विक्रमादित्य ने बेताल को पेड़ से उतारा और कंधे पर डाला।

रात घनी और चुप थी। श्मशान की हवा में धुएँ और राख की गंध घुली हुई थी। राजा विक्रमादित्य अपने कंधे पर बेताल को उठाए, चुपचाप कदम बढ़ा रहे थे।

जैसे ही वह जंगल की घुमावदार पगडंडी पर बढ़े, बेताल की ठंडी हँसी उनके कानों में गूँजी –


Vikram Betaal Stories
राजा विक्रमादित्य और बेताल

"राजा, रास्ता लंबा है… चलो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ।सुनोगे?"

विक्रम ने ठंडी साँस ली, "बोल बेताल। लेकिन याद रख, अंत में तू भाग नहीं पाएगा।"


बेताल हँसा, "मैं भागूँगा नहीं, पर अगर उत्तर जानकर भी चुप रहे, तो तुम्हारा सिर फट जाएगा।"

और बेताल ने कहानी शुरू की…

बहुत समय पहले उज्जयिनी राज्य में राजा चंद्रसेन का शासन था। उसकी पुत्री रत्नावली के सौंदर्य की चर्चा चारों दिशाओं में थी — काले बादलों-सी लहराती केशराशि, कमल-सी आँखें , और बुद्धि ऐसी कि दरबार के पंडित भी दंग रह जाएँ। उसकी आँखों में गंगा की शांति और चेहरें पर हिमालय की गरिमा थी।

जब विवाह की उम्र आई, राजा ने घोषणा की —

"राजकुमारी रत्नावली का स्वयंवर होगा! जो राजकुमारी को सबसे अधिक प्रभावित करेगा, वही उसका पति बनेगा।" स्वयंवर की घोषणा होते ही दूर-दूर के राजकुमार आमंत्रित हुए, लेकिन तीन राजकुमार सबसे अलग

वीरभद्र

कद-काठी में पर्वत जैसा, हाथ में तलवार जैसे बिजली की धार। युद्धभूमि में उसकी एक हुंकार से सेनाएँ कांप उठतीं। वह कहता—

"राज्य की रक्षा के लिए मैं अपना प्राण भी न्योछावर कर दूँगा।"

पर उसकी आँखों में एक जल्दबाज़ी भी थी—तलवार पहले, सोच बाद में।


धीरेंद्र

पतला, लंबा, आँखों में गहरी चालाकी। वह राजनीति का खिलाड़ी था।

"युद्ध जीता नहीं जाता, जीता जाता है दिमाग से," वह कहता।

पर हर बात को गणना में बदलने वाला यह राजकुमार, दिल की भाषा शायद समझ ही न पाता।

विनयपाल

मृदुभाषी, दयालु, सबका दुख बांटने वाला।

"राजा का असली काम जनता के घाव भरना है," वह कहता।

पर क्या सिंहासन पर बैठकर इतनी दया खतरनाक साबित नहीं होगी?


स्वयंवर से पहले की रात


स्वयंवर से एक रात पहले, रत्नावली अपनी महल की बालकनी में खड़ी थी। नीचे चाँदनी में बगीचा चमक रहा था, लेकिन उसके मन में तूफ़ान था।

"मैं किसे चुनूँ?" — यह सवाल उसकी नींद चुरा रहा था।


"वीरभद्र मुझे सुरक्षा देगा… पर कहीं उसका क्रोध राज्य को संकट में न डाल दे।


धीरेंद्र चतुर है… पर दिल के बजाय दिमाग से जीने वाला क्या मुझे खुश रख पाएगा?

विनयपाल मुझे प्रेम देगा… पर क्या उसकी नरमी सिंहासन पर कमजोरी साबित होगी?"


तभी अचानक, हवा में सरसराहट हुई।

उसने देखा—छाया में एक काला आकृति, हाथ में लंबा खंजर, धीरे-धीरे बगीचे की ओर बढ़ रही थी।

रत्नावली का दिल धड़क उठा।


स्वयंवर का दिन और रहस्य का खुलासा


सुबह का उजाला महल की सुनहरी दीवारों पर फैल चुका था। फूलों की मालाएँ, चंदन की महक, और शहनाई की मधुर ध्वनि चारों ओर गूँज रही थी।

महल सजे थे, नगाड़े बज रहे थे, प्रजा उत्सुक थी। तीनों राजकुमार दरबार में खड़े थे।

महाराज ने रत्नावली को हार सौंपा, "बेटी, अपना जीवन-साथी चुनो।"

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रत्नावली भारी रेशमी वस्त्र में सजी, हाथ में वरमाला लिए मंडप में आई। रत्नावली तीनों राजकुमारों की तरफ कदम बढ़ा ही रही थी , लेकिन उसकी नजर बार-बार सभा-भवन के दरवाज़े पर पड़ रही थी—जहाँ एक अजनबी खड़ा था, चेहरा घूंघट में।


अचानक, उसी अजनबी ने ऊँची आवाज़ में कहा—

"रुको! यह स्वयंवर एक छल है!"


सारा दरबार स्तब्ध।

उसने घूंघट हटाया—वह रत्नावली की बचपन की दासी थी, आँखों में आँसू और होंठ कांपते हुए।

"राजकुमारी, कल रात बगीचे में जो खंजरधारी था, वह किसी और ने नहीं… वीरभद्र ने भेजा था।"

सच और निर्णय


दरबार में सन्नाटा।

वीरभद्र लाल चेहरा लिए बोला—

"यह झूठ है! मैं बस तुम्हारी रक्षा करना चाहता था!"


धीरेंद्र मुस्कुराया, "या फिर गद्दी पर बैठने की जल्दी थी?"

विनयपाल ने चुपचाप रत्नावली की ओर देखा—उसकी आँखों में सिर्फ सच्चाई थी।


रत्नावली ने गहरी साँस ली और कहा—

"एक राजा को ताकत, दिमाग और दया—तीनों चाहिए। पर सबसे पहले चाहिए ईमानदारी।"

उसने वरमाला विनयपाल के गले में डाल दी।


"तो विक्रम," बेताल ने हँसते हुए कहा, "बताओ—रत्नावली का निर्णय सही था या नहीं? और क्यों?"

बेताल की आवाज़ विक्रम के कानों में गूँजी –


"अब बोलो, विक्रम! अगर तुम राजा होते, तो रत्नावली को किससे विवाह करने का आदेश देते? वीरता, बुद्धि, दया — या फिर उस गुप्त इशारे के आधार पर? सोचो… क्योंकि हो सकता है, वर चुनने का मतलब सिर्फ पति चुनना न हो… बल्कि देश का भविष्य तय करना हो!"


विक्रम ने कहा, "हाँ, क्योंकि ईमानदारी के बिना ताकत और बुद्धि दोनों विनाश का कारण बनते हैं।"


बेताल ठहाका मारकर बोला—


"सही उत्तर, राजा विक्रम! अब मैं उड़ चला…"

और वह फट से उनके कंधे से उड़कर फिर श्मशान की डाल पर जा लटक गया।






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