विक्रमादित्य और बेताल की कहानियां – भाग ४ तपस्वी की कन्या और तीन वर
- Anu Goel
- Sep 17
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गाढ़ी अंधेरी रात थी। आकाश में बादल उमड़-घुमड़ रहे थे और बीच-बीच में बिजली की चटक आवाज़ से पूरा जंगल चमक उठता। श्मशान की ओर जाते राजा विक्रमादित्य अपने दृढ़ कदमों से आगे बढ़ रहे थे। उनके कंधों पर बेताल लटका हुआ था—वही बेताल, जो हर बार कहानी सुनाते-सुनाते राजा को उलझा देता और सही उत्तर मिलते ही उड़कर फिर पेड़ पर जा लटकता।
जंगल की ठंडी हवाएँ, जंगली जानवरों की डरावनी आवाज़ें और दूर कहीं जलती चिताओं की धधकती लपटें माहौल को और भी भयानक बना रही थीं। परन्तु विक्रमादित्य की नज़रें लक्ष्य पर टिकी थीं—उन्हें बेताल को तांत्रिक के पास पहुँचाना ही था।

बेताल ने कर्कश हँसी के साथ कहा—
“राजन! लगता है तुम थकते ही नहीं। हर बार मुझे पकड़ लाते हो, और हर बार मेरी कहानी सुनकर बोल पड़ते हो। पर चूँकि तुम्हें चुप कराना असंभव है, तो चलो… सुनो मेरी अगली कथा।”
कथा : तपस्वी की कन्या और तीन वर
एक समय की बात है। विदर्भ नगरी पर राजा चंद्रप्रभा राज करते थे। उनके राज्य में सुख, वैभव और शांति थी। लोग उन्हें न्यायप्रिय और दयालु शासक मानते थे।
एक दिन एक वृद्ध तपस्वी राजदरबार में आया। उसके साथ उसकी कन्या थी, जो अद्वितीय रूपवती थी—उसका चेहरा चाँद की तरह उज्ज्वल और उसकी आँखें गहरी झील जैसी थीं। तपस्वी ने राजा से कहा—
“राजन! मैं तपस्या के लिए वन में जा रहा हूँ। यह मेरी पुत्री है। कृपा करके इसे अपने संरक्षण में रखो। जब विवाह योग्य समय आए, तो इसका कन्यादान कर देना।”
राजा ने गंभीरता से सिर झुकाया और उस कन्या को महल में स्थान दे दिया।
युवकों का आकर्षण
समय बीतता गया। कन्या सयानी हो गई। उसके सौंदर्य की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। अनेक वर उसे पाने को आतुर हो उठे। उनमें से तीन युवक विशेष रूप से आगे आए।
तीनों ही शिक्षित, साहसी और सुयोग्य थे। कन्या की सुंदरता और गुणों पर मोहित होकर उन्होंने प्रण लिया कि—
“यदि कन्या हममें से किसी एक को मिली, तो बाकी दोनों बिना ईर्ष्या उसके जीवन का हिस्सा बने रहेंगे।”
परंतु भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था।

मृत्यु का आघात
अचानक एक दिन वह कन्या अस्वस्थ हुई और उसकी मृत्यु हो गई। पूरा नगर शोकाकुल हो उठा। तीनों वर श्मशान भूमि पहुँचे और अपने-अपने कर्तव्य निभाने की ठान ली।
पहला युवक बोला—“मैं उसका अंतिम संस्कार करूँगा। पति का प्रथम धर्म है पत्नी की चिता सजाना।”
दूसरा युवक बोला—“मैं इसकी अस्थियों और राख को सँभालूँगा। जीवन भर उसकी स्मृति अपने साथ रखूँगा।”
तीसरा युवक बोला—“मैं तपस्या करूँगा और ईश्वर से इसे पुनः जीवन प्रदान करने की प्रार्थना करूँगा।”

पहले ने चिता सजाकर उसका अंतिम संस्कार किया। दूसरा उसकी अस्थियाँ एक पात्र में रखकर घुमता रहा। तीसरा जंगल में चला गया और कठोर तपस्या करने लगा।
तपस्या का फल
वर्षों बीत गए। तीसरे युवक की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे वरदान दिया। उसने विनती की—
“प्रभु! मेरी प्रेयसी को पुनर्जीवित कीजिए।”
भगवान ने आशीर्वाद दिया और मृत कन्या पुनः जीवित हो उठी। उसका रूप पहले से भी अधिक अलौकिक लगने लगा।
अब तीनों युवक उसके सामने खड़े थे—
एक जिसने उसका अंतिम संस्कार किया था।
एक जिसने उसकी अस्थियों को सँभालकर रखा था।
और एक जिसने तपस्या कर उसे जीवनदान दिलाया था।
कन्या स्वयं भी उलझन में थी। वह किसे अपना पति माने?
बेताल का प्रश्न
इतना कहकर बेताल ठठाकर हँसा और बोला—
“तो राजन! अब तुम बताओ, उन तीनों में उस कन्या का सच्चा पति कौन होगा? जिसने उसे जलाया? जिसने अस्थियाँ सँभालीं? या जिसने तपस्या कर उसे पुनर्जीवित किया?”
विक्रमादित्य का उत्तर
राजा विक्रम ने क्षणभर विचार किया और बोले—
“उस कन्या का पति वही है जिसने उसका अंतिम संस्कार किया। क्योंकि पति का पहला और परम कर्तव्य है पत्नी के निधन पर उसका धर्मसम्मत संस्कार करना। जिसने अस्थियाँ सँभालीं, वह केवल स्मृति निभा रहा था। और जिसने तपस्या कर उसे पुनर्जीवित किया, उसने उपकार अवश्य किया, पर पति का अधिकार उसे नहीं मिलता। असली पति वही है जिसने उसका अंतिम संस्कार किया।”
बेताल हँसा और बोला—
“राजन ! तुम सचमुच महान हो। हर बार सही उत्तर देकर मेरी पकड़ ढीली कर देते हो। पर तुम बोलते हो, यही तुम्हारी कमजोरी है… और यही मेरी ताकत !”
इतना कहकर बेताल फुर्र से उड़कर फिर उसी पेड़ पर जा लटका।
रोमांच का अंत और अगली कड़ी की प्रतीक्षा

विक्रमादित्य ने गहरी साँस ली। वह जानते थे कि अगली बार भी उन्हें उसे पकड़ना होगा, अगली बार भी उन्हें उसके प्रश्नों का सामना करना होगा। पर साहस और धैर्य के साथ उन्होंने निश्चय किया—
“जब तक यह कार्य पूरा नहीं होता, मैं हार नहीं मानूँगा।”
और इस तरह जंगल में फिर से बेताल को पकड़ने का रोमांच शुरू हुआ…
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