सोनम रखुवंशी कांड: जब एक बेटी की चुप्पी पूरे समाज पर सवाल छोड़ गई
- Anu Goel
- Jun 16
- 5 min read
आज हमने एक बहुत ही संवेदनशील और ज़रूरी विषय को उठाया है – सोनम रखुवंशी कांड सिर्फ एक लड़की की व्यक्तिगत लड़ाई नहीं, बल्कि हमारे समाज के उस सोचने के तरीके का आईना है जो आज भी जात-पात, पैसे, और सामाजिक ओहदे को इंसानियत और प्रेम से ऊपर रखता है।
"प्यार में जात नहीं होती, लेकिन शादी में क्यों होती है?"
> “वो लड़की एक कंपनी चला सकती थी, लेकिन अपनी शादी नहीं। क्यों?”
सोनम रखुवंशी की कहानी आज सिर्फ एक लड़की की नहीं है — ये कहानी हर उस लड़की की है जो अपने जीवन के फैसले खुद लेना चाहती है, लेकिन समाज, परंपरा, और पारिवारिक ‘इज़्ज़त’ के नाम पर उससे ये हक छीन लिया जाता है।
क्या वाकई दोष सोनम का था? या फिर हम सबका, जो आज भी ये मानते हैं कि शादी दो लोगों की नहीं, दो खानदानों की, दो जातियों की, दो ओहदों की मिलन होती है?
एक लड़की जो बिज़नेस चला सकती है, क्या वो अपना जीवनसाथी चुनने के काबिल नहीं?
अगर हमारे समाज की सोच थोड़ी भी बदल गई होती, तो शायद सोनम को ये कदम उठाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।
> "बेटी से कहा गया पढ़ो-लिखो, कमाओ, पर जब उसने कहा—‘मुझे ये लड़का पसंद है’—तो उसे चुप करा दिया गया।"

सोनम रखुवंशी की चुप्पी नहीं, हमारा समाज चीख रहा है।
सोनम रखुवंशी — एक नाम, जो आज सिर्फ एक खबर नहीं रहा। यह उस असहनीय चुप्पी का शोर बन गया है जिसे हमने समाज के नाम पर थोप रखा है।
उसकी कहानी न केवल एक युवती के मोहभंग की त्रासदी है, बल्कि हमारे सामूहिक पाखंड, दोहरे मापदंड और जात-पात, मान-सम्मान, रिवाज़ों की गिरफ्त में फंसी मानसिकता की परतें उधेड़ती है।
सोनम एक शिक्षित, आत्मनिर्भर युवती थी — जिसने अपने दम पर कंपनी चलाई, करियर बनाया, और सपने बुने। लेकिन जब उसने अपने जीवनसाथी का चुनाव किया — जो उसके अपने समुदाय, जाति या सामाजिक ‘ओहदे’ का नहीं था — तभी से वो एक संघर्ष की शुरुआत में फंस गई।
रिश्ते के लिए मना करना, घरवालों की नाराज़गी, समाज का तिरस्कार, और सबसे बढ़कर, उस लड़के को अपनाने की उसकी जिद — इन सबका अंत एक जघन्य अपराध के रूप में हुआ, जिसमें मासूम जानें चली गईं।
🧠 क्या केवल सोनम दोषी है?
हम यहां किसी को क्लीन चिट नहीं दे रहे — किसी भी निर्दोष की जान लेना या दिलवाना किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं हो सकता।
लेकिन क्या सोनम का यह रास्ता चुनना केवल उसकी सोच थी, या उसके पीछे खड़ा एक ऐसा समाज था जिसने उसे हर मोड़ पर नकारा?
सवाल यह है — क्या सोनम ने ये रास्ता अपनी खुशी से चुना, या समाज की दीवारों ने उसे इस मोड़ पर ला खड़ा किया?

📌 सवाल जो हर सोचने वाले को परेशान करेंगे:
क्या एक लड़की को, जिसने खुद की कंपनी बनाई हो, अपने जीवनसाथी के चुनाव का भी अधिकार नहीं?
क्या हर फैसला केवल जाति, खानदान, या समाज की "इज़्ज़त" के तराज़ू पर तौला जाएगा?
क्या बेटियों को सिर्फ इसलिए पढ़ाया जा रहा है ताकि उनकी शादी आसान हो जाए — न कि इसलिए कि वे अपने फैसले खुद ले सकें?
क्या उनका आत्मनिर्भर होना सिर्फ एक औपचारिकता है, असली फैसले तो आज भी परिवार ही लेगा?
👪 परिवार और प्रेम: जब समर्थन बदल जाए जंजीर में
मीडिया रिपोर्ट्स और सामने आई बातचीतों से पता चलता है कि सोनम ने अपने घरवालों से स्पष्ट रूप से कहा था:
> "मैं इस लड़के से प्यार करती हूं। मैं उसी से शादी करूंगी।"
परिवार से उसकी बातों का जवाब यह नहीं था कि “तू क्या चाहती है?”
बल्कि यह था कि “लोग क्या कहेंगे?”
उसके घरवालों ने उसे समझाने के बजाय, दबाव बनाना शुरू किया — शादी के लिए रिश्ता पक्का करना, ताने देना, भावनात्मक और सामाजिक गिल्ट में धकेलना।
वो दिन, जब किसी लड़की को उसके फैसलों के लिए सुना नहीं जाता, वो समाज के गिरने की शुरुआत है।
🔥 बगावत या अपराध? समाज ने लड़की को किस मोड़ पर लाकर खड़ा किया?
जब विकल्प सिर्फ दो हों —
1. या तो अपनी पसंद छोड़ दो और “इज़्ज़त” के नाम पर घुटते रहो,
2. या फिर ऐसा रास्ता चुनो जो शायद अनैतिक हो —
तो कई बार युवा गलतियां कर बैठते हैं।
इसमें ग़लती है, पर सिर्फ व्यक्ति की नहीं — उस माहौल की भी जिसने संवाद के सभी दरवाज़े बंद कर दिए।

🙍♀️ आज की बेटियां क्यों डरती हैं शादी से?
इस घटना ने एक और गंभीर मुद्दे को उजागर किया है —
आज की कई लड़कियां या तो समाज से बगावत कर रही हैं, या अपराध की राह पकड़ रही हैं, या फिर शादी जैसे संस्थान पर ही भरोसा खो बैठी हैं।
क्यों?
क्योंकि समाज कहता है:
कमाओ, ताकि तुम्हारी शादी आसान हो,
पर मत बोलो, कि किससे करनी है।
ये दोहरापन ही सबसे बड़ा जहर है, जो आधुनिकता के नकाब में हमारी रूढ़िवादी सोच को छिपाता है।
⚖️ क्या समाधान है?
सवाल उठाना ज़रूरी है, लेकिन उससे भी ज़रूरी है जवाब ढूंढना:
1. संवाद को बढ़ावा देना: बच्चों से बात करें, उनके फैसलों को समझें।
2. जात-पात को चुनौती दें: एक इंसान की पहचान उसकी सोच, संस्कार और कर्म हैं — न कि उसकी जाति या बिरादरी।
3. शादी को साझेदारी बनाएं, सौदा नहीं: दो लोगों के बीच भरोसा और प्रेम ही मूल आधार होना चाहिए — न कि खानदान, ज़मीन या पैसा।
4. बेटियों को अधिकार के साथ आत्मनिर्भरता दें: सिर्फ कमाने की आज़ादी नहीं, सोचने और चुनने की भी।
आज जब हम बढ़ते अपराधों की बात करते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि अब वो समय नहीं रहा जब लड़कियां अनपढ़ और निर्भर थीं।
पहले वे घर वालों की बातों को आंख मूंदकर मान लेती थीं क्योंकि उनके पास विकल्प नहीं होते थे।
लेकिन आज की लड़कियां शिक्षित हैं, आत्मनिर्भर हैं, सोचने और निर्णय लेने में सक्षम हैं।
वे घर, ऑफिस, बच्चों, और जिम्मेदारियों को बखूबी संभाल रही हैं — तो फिर क्यों उन्हें अपनी जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण फैसले खुद लेने का हक नहीं है?
समाज अब भी उन्हें ‘बोझ’ और कमजोर मानकर उनके जीवन की डोर अपने हाथ में रखना चाहता है।
इस सोच ने बेटियों को परिवारों से दूर कर दिया है।
और जब ये दूरी बढ़ती है, तो अपराधी मानसिकता के लोग उस खालीपन का फायदा उठाते हैं।
वे उन्हें आज़ादी के सपने दिखाकर, प्रेम और अपनेपन का दिखावा कर गुमराह करते हैं।
जो बेटियां अपनों से संवाद नहीं कर पातीं, वे ऐसे लोगों की संगति में फंसकर अपराध की ओर बढ़ जाती हैं — कभी मजबूरी में, कभी भ्रम में।
आज़ादी हर इंसान का हक और सपना होता है।
लेकिन अगर किसी को उसका सपना देखने की भी इजाजत ना हो, तो वो सिर्फ टूटता नहीं, बल्कि फूट पड़ता है।
आज की लड़कियां ‘आज़ादी’ चाहती हैं — सोचने की, बोलने की, और अपना जीवन जीने की।
लेकिन हमारा समाज अब भी उन्हें गुलाम बनाकर रखना चाहता है — और यहीं से शुरू होती है विद्रोह की कहानी।
कितनी बड़ी विडंबना है कि सोनम को अपने परिवार, अपनी मां और भाई को समझाने से ज्यादा आसान एक निर्दोष की हत्या करना लगा।
क्यों? क्योंकि संवाद के सारे दरवाज़े बंद कर दिए गए थे।
परिवार और समाज का इतना दवाब क्या सही है?
अगर हम अब भी नहीं इस मानसिकता के बदलाव को समझें, तो आने वाले समय में ऐसे अपराध और बढ़ेंगे।
हमारी युवा पीढ़ी, जो देश का भविष्य है, अंधकार की ओर बढ़ती जाएगी।
अब फैसला हमें करना है —
क्या हम बेटियों को आवाज़ देना चाहते हैं,
या फिर उनकी चुप्पी को एक दिन बारूद बनने देंगे?
🔚निष्कर्ष
सोनम रखुवंशी ने जो किया वो ग़लत था — बहुत ग़लत। लेकिन वो ग़लती अकेले उसकी नहीं थी।
उसके फैसले ने जानें लीं, पर हमें एक बड़ा आईना भी दिखाया।
अब यह समाज को तय करना है —
क्या हम बेटियों को बस 'शादी योग्य' बनाना चाहते हैं, या उन्हें वो आत्मसम्मान और हक भी देना चाहते हैं जिससे वो खुद को पूरी तरह इंसान समझें, किसी की ‘ज़िम्मेदारी’ नहीं।
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📢 आखिरी सवाल:
> अगर बेटियां सिर्फ "सहने" के लिए होतीं, तो उन्हें पढ़ाना क्यों शुरू किया था?
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