ये कविता सिर्फ मेरी नहीं…
ये हर लड़की, हर औरत के मन की आवाज़ है।
हम औरतें ज़िंदगी भर रिश्तों को निभाने में,
जिम्मेदारियों का बोझ उठाने में,
और दूसरों के लिए जीते-जीते
खुद को कहीं खो बैठती हैं।
पर दिल के किसी कोने में
हम सबके मन में एक छोटी-सी ख्वाहिश ज़रूर पलती है—
कि काश… एक दिन, सिर्फ एक दिन
हम अपने लिए जी पाएँ,
खुद को जान पाएँ,
कि आखिर हम कौन हैं,
हम क्या चाहती हैं।
इसी मनोभाव को शब्दों में पिरोने की एक कोशिश है—
‘खुद से मुलाक़ात’…"
अब थक गयी हूं ,
दुनिया के रास्ते चलते-चलते ,
कहीं खो गयी हूं,
रिश्तों को संभालते - संभालते,
अब मैं खुद में खुद को खोजना चाहती हूं।
हर दिन हर पल बस दूसरों की नजर से देखा खुद को,
बस अब खुद से मिलना चाहती हूं।
जिंदगी के कुछ पल खुद से जीना चाहती हूं,
बिना किसी बंदिश के उड़ना चाहती हूं,
वो पल जो सिर्फ मेरा हो,
ना रिश्तों की डोर, ना जिम्मेदारी का सहरा हो,
ना कोई सवाल हो , ना कोई जवाब हो,
ना कोई नाम हो , ना कोई पहचान हो,
सिर्फ मैं एक आत्मा -
जिसकी ना कोई नाम ना जात हो।
मैं मिलना चाहती हूं खुद से,
मैं जानना चाहती हूं मैं कौन हूं,
क्या अस्तित्व है मेरा,
कुछ तो होगा मुझमें मेरा अपना।
बस वो अपना ढूंढना चाहती हूं,
अब मैं खुद से मिलना चाहती हूं,
अब मैं खुद में खुद को खोजना चाहती हूं।।
"शायद…
ये तलाश सिर्फ मेरी नहीं,
हम सबकी है।
क्योंकि हर औरत ,हर लड़की…
कभी न कभी, कहीं न कहीं
अपने आप से मुलाक़ात करना चाहती है।