बारिश नहीं हुई, पर उम्मीद बरसी — दिल्ली की क्लाउड सीडिंग कहानी"
- Anu Goel
- Nov 1
- 4 min read
“बादल तो छाए थे, उम्मीदें भी उठीं... पर आसमान ने मुंह फेर लिया। फिर भी विज्ञान ने हार नहीं मानी।”☁️☁️☁️
दिल्ली की दमघोंटू हवा, हर साल सर्दियों में बदलती एक धुंधली कैद में। जब सांस लेना तक मुश्किल हो जाए , तब एक ही उम्मीद जगती है — बारिश।
बारिश जो न सिर्फ सड़कों की धूल धो दे, बल्कि हवा में भरे जहर को भी कम कर दे। जिससे सांस लेने में दिक्कत नहीं हो।
इसी उम्मीद के साथ दिल्ली ने अक्टूबर 2025 में एक नया प्रयोग किया — क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) का।
सरकार और IIT कानपुर ने मिलकर यह ट्रायल किया। उद्देश्य था:
- प्रदूषण घटाना और कृत्रिम रूप से बारिश लाना।
लेकिन… बारिश नहीं हुई।
और देशभर में सवाल उठे — “क्या क्लाउड सीडिंग फेल हो गया?”
आइए जानते हैं कि असल कहानी क्या है — यह ट्रायल क्यों हुआ, क्यों नहीं बरसे बादल, और इससे आखिर क्या सीखा गया।

क्लाउड सीडिंग क्या है?
बारिश बुलाने का विज्ञान
क्लाउड सीडिंग सुनने में जादू जैसा लगता है — आसमान में रसायन छोड़े और बारिश होने लगी!
लेकिन असल में यह एक बेहद वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
इस तकनीक में विमानों या ड्रोन के जरिए सिल्वर आयोडाइड, पोटैशियम आयोडाइड या सोडियम क्लोराइड जैसे पदार्थ बादलों में छोड़े जाते हैं।
ये पदार्थ "सीड" (बीज) का काम करते हैं — यानी पानी की भाप को आकर्षित कर उसे ठंडा करते हैं ताकि बूंदें बनें और बारिश शुरू हो।
लेकिन ये प्रक्रिया तभी काम करती है जब बादल मौजूद हों, नमी पर्याप्त हो और तापमान अनुकूल हो।
यानि प्रकृति को सहयोग देना ज़रूरी है, उसे हराना नहीं।
दिल्ली में क्यों किया गया ये प्रयोग?
हर साल की तरह इस बार भी अक्टूबर–नवंबर में दिल्ली प्रदूषण की गिरफ्त में थी।
AQI 400 के पार, सांसों में जलन, और आसमान में झूलते धुएं के पर्दे।
सरकार और IIT कानपुर ने एक संयुक्त योजना बनाई —
क्लाउड सीडिंग के जरिए कृत्रिम बारिश लाकर हवा साफ़ करने की कोशिश।
IIT कानपुर के वैज्ञानिक प्रो. मनिंदर अग्रवाल की टीम ने इस मिशन पर महीनों काम किया।
दिल्ली में दो विमानों की मदद से तय किया गया कि जब बादलों की स्थिति अनुकूल दिखेगी, तब रसायन छोड़े जाएंगे।
24 अक्टूबर को मौसम ने साथ दिया — बादल छाए, टीम तैयार थी।
और तभी आसमान में छोड़े गए सिल्वर आयोडाइड के कणों से उम्मीदें बंधीं कि कुछ ही घंटों में बारिश की बूंदें गिरेंगी…
लेकिन आसमान ने चुप्पी साध ली।
क्यों नहीं हुई बारिश?
विज्ञान में असफलता नहीं, कारण खोजने की प्रक्रिया होती है।
IIT कानपुर के वैज्ञानिकों ने बताया कि उस दिन बादलों की ऊंचाई और तापमान, दोनों अनुकूल नहीं थे।
बादलों की ऊँचाई बहुत ज्यादा थी, जिससे सीडिंग पार्टिकल्स वहाँ तक पहुँच नहीं पाए।
हवा में नमी (Humidity) 40% से भी कम थी, जबकि कम से कम 70% ज़रूरी होती है।
बादल घने नहीं थे — यानी “बारिश के लिए कच्चा माल” ही कम था।
संक्षेप में कहें तो, मौसम तैयार नहीं था।
विज्ञान ने अपना काम किया, पर प्रकृति की मर्ज़ी कुछ और थी।
क्या ट्रायल पूरी तरह फेल हुआ?
नहीं, और बिल्कुल नहीं।
IIT कानपुर की टीम ने कहा — “ये प्रयोग फेल नहीं, बल्कि एक डेटा-कलेक्शन मिशन था।”
हर मिनट का तापमान, हवा की दिशा, बादलों की परतों की मोटाई — सबका रिकॉर्ड लिया गया।
अब इन आंकड़ों से भविष्य के लिए सटीक समय और स्थान तय करने में मदद मिलेगी।
जैसा कि प्रो. अग्रवाल ने कहा —
“हर प्रयोग एक सीख है। इस बार बारिश नहीं हुई, लेकिन हमने समझा कि दिल्ली में सही परिस्थितियां कब बनती हैं।”
दुनिया में कहाँ-कहाँ सफल रहा क्लाउड सीडिंग?
दिल्ली का ट्रायल भले ही निराशाजनक रहा, लेकिन दुनिया में कई जगहों पर यह तकनीक काम कर चुकी है।
दुबई में 2021 में क्लाउड सीडिंग से जबरदस्त बारिश हुई थी।
चीन ने 2008 ओलंपिक के दौरान इस तकनीक से बारिश को “कंट्रोल” किया था।
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, और इजरायल जैसे देशों में भी इसका सफल इस्तेमाल हुआ है।
लेकिन इन जगहों की खास बात ये थी — वातावरण में पर्याप्त नमी और घने बादल।
दिल्ली जैसी शुष्क परिस्थितियों में यह चुनौती ज्यादा बड़ी है।

दिल्ली के लिए सबक — विज्ञान बनाम मौसम
क्लाउड सीडिंग ने एक बड़ी सच्चाई दिखा दी —
हम तकनीक से प्रकृति को मात नहीं दे सकते, लेकिन उसके साथ कदम जरूर मिला सकते हैं।
दिल्ली के वैज्ञानिकों ने जिस लगन से यह मिशन किया, वह अपने आप में ऐतिहासिक था।
यह प्रयोग आने वाले समय में बेहतर तकनीकी निर्णयों की नींव बनेगा।
जैसा कि एक वैज्ञानिक ने कहा —
“क्लाउड सीडिंग असफल नहीं हुई, बस मौसम ने ‘ना’ कहा। अगली बार हम पूछेंगे — कब ‘हाँ’ कहोगे?”
आगे की राह
विशेषज्ञों का मानना है कि अगला ट्रायल दिसंबर या अगले मानसून में किया जा सकता है,
जब बादल ज्यादा घने और नमी पर्याप्त होगी।
साथ ही IIT कानपुर अब AI और सैटेलाइट डेटा के जरिए ऐसे “Cloud windows” खोजने की कोशिश कर रहा है,
जहाँ क्लाउड सीडिंग की सफलता की संभावना अधिक हो।
यह सिर्फ बारिश के लिए नहीं, बल्कि वायु प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में एक बड़ा कदम है।

निष्कर्ष: “बादल नहीं बरसे, पर उम्मीदें भीग गईं”
दिल्ली की क्लाउड सीडिंग भले ही बारिश नहीं ला पाई,
लेकिन इसने हमें यह एहसास जरूर कराया कि विज्ञान, धैर्य और उम्मीद – तीनों साथ चलते हैं।
हर असफल प्रयोग, भविष्य की सफलता की तैयारी है।
शायद अगली बार जब दिल्ली की हवा फिर दम घोंटेगी,
तो वही बादल कहेंगे —
“अब हमारी बारी है बरसने की।”
एक पंक्ति में सारांश:
“क्लाउड सीडिंग ने भले ही बारिश न दी हो, पर दिल्ली को यह सिखाया कि उम्मीद भी विज्ञान जितनी जरूरी है।”




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