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खुद से मुलाक़ात

खुद से मुलाक़ात

शायद ये ख्वाहिश हर औरत के दिल में होती है।

हर कोई चुपचाप ये सपना देखती है कि एक दिन सिर्फ अपने लिए जीएगी।

पर उस "एक दिन" को कभी कोई सच नहीं बना पाता।

क्योंकि परिवार, समाज, रिश्ते—ये सब हमें रोक लेते हैं।

लेकिन दिल… दिल फिर भी ख्वाहिश रखता है।

एक ख्वाहिश है मेरे दिल में भी-


बहुत छोटी सी ख्वाहिश… मगर बहुत गहरी।

मैं चाहती हूँ—एक दिन ऐसा हो, जब मैं सिर्फ अपने लिए जी सकूँ।

उस दिन सुबह उठते ही मुझे ये चिंता न हो कि घर में क्या बनेगा नाश्ते में।

उस दिन मुझे ये फ़िक्र न हो कि कौन क्या सोचेगा अगर मैं देर तक सो जाऊँ।

उस दिन मैं आईने के सामने खड़ी होकर खुद से पूछ सकूँ—

"तू खुश है?"

काश… एक दिन मैं अपने लिए कपड़े चुनूँ, दूसरों की पसंद के लिए नहीं।

काश… मैं सड़क पर चलूँ और मुझे ये सोचना न पड़े कि लोग क्या कहेंगे।

काश… मैं बिना किसी डर और बंदिश के उड़ सकूँ।

पर अब जब भी आईने के सामने खड़ी होती हूँ, एक सवाल मेरे दिल को चीरता है—

"ये कौन है?"

Girl in mirror

आईना कहता है—ये वही औरत है, जो कभी सपने देखा करती थी।

वो औरत, जो कॉलेज के दिनों में अपने दोस्तों संग हँसते-हँसते पागल हो जाती थी।

वो औरत, जो बारिश में भीगना पसंद करती थी।

वो औरत, जो डायरी में कविताएँ लिखा करती थी।


पर आज… वो औरत गुम है।

अब आईने में दिखती है सिर्फ माँ, पत्नी, बहू…

हर रिश्ते का बोझ सिर पर है, पर मेरा अपना नाम, मेरी अपनी पहचान जैसे धुँधली हो गई है।

और आज फिर यूं ही दिन बीत गया…

सुबह की भागदौड़, रसोई की आवाज़ें, बच्चों की हँसी-ठिठोली, घर के बुज़ुर्गों की दवाइयों की याद दिलाना, पति के लिए चाय बनाना, रिश्तेदारों के फोन उठाना… और मैं?

मैं कहाँ थी इस पूरे दिन में?


कभी सोचती हूँ, सुबह सूरज जब उगता है, तो उसके पास कितनी ताक़त होती है, पूरे संसार को रोशनी देने की।

और मैं?

मैं हर सुबह किसी सूरज की तरह उगती हूँ, मगर मेरी रोशनी हमेशा दूसरों के हिस्से चली जाती है।

कभी मेरे हिस्से में भी वो गर्माहट आएगी, जो सिर्फ मेरी हो?

आप ये मत समझना कि मुझे अपने रिश्तों से शिकायत है।

नहीं।

मैं हर रिश्ते से प्यार करती हूँ।

पर हर रिश्ते में मैंने खुद को इतना बाँट दिया है कि मेरे हिस्से में मैं ही नहीं बची।


माँ बनने के बाद मैंने अपना बचपन वहीं छोड़ दिया।

पत्नी बनने के बाद मैंने अपनी आज़ादी वहीं छोड़ दी।

बहू बनने के बाद मैंने अपनी इच्छाएँ वहीं छोड़ दीं।

पर कब तक?

कब तक मैं अपने हिस्से की रोशनी किसी और के हिस्से करती रहूँगी?

क्या मुझे कभी ये हक़ नहीं मिलेगा कि मैं भी अपने सपनों की ओर देख सकूँ?

दिनभर तो मैं इतनी व्यस्त रहती हूँ कि सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता।

पर रात का ये सन्नाटा… ये बहुत निर्दयी है।

ये मेरी सारी थकान, सारी पीड़ा, सारी अधूरी इच्छाएँ सामने ला देता है।


आज फिर रात का सन्नाटा है।

घर के हर कोने से नींद की साँसें सुनाई दे रही हैं।

बच्चे गहरी नींद में हैं, पति थककर सो चुके हैं, ससुराल वाले अपने-अपने कमरों में।

Night

और मैं… मैं इस छत पर अकेली बैठी हूँ।

आसमान को देख रही हूं—कितने तारे थे वहाँ।

हर तारा जैसे कह रहा था—"देखो, हम सब अलग हैं, पर फिर भी चमकते हैं।"

और मैं सोचने लगी—

क्यों मैं अपनी चमक खो बैठी?

क्या मेरी रोशनी सिर्फ दूसरों के लिए है?

हवा हल्की ठंडी है, पर मेरे भीतर का बोझ और गर्म है।

और अब… जब सब सो गए हैं, तो मैं खुद से कह रही हूँ—


"मैं मिलना चाहती हूं खुद से,

मैं जानना चाहती हूं मैं कौन हूं,

क्या अस्तित्व है मेरा…"

आज मैं फिर वही सवाल लेकर बैठी हूँ—"मैं कौन हूँ?"

दिन भर मैं भागती रही, एक काम से दूसरे काम तक।

रसोई से बैठक, बच्चों की पढ़ाई से रिश्तेदारों के फ़ोन तक।

हर जगह एक ही नाम—"माँ, बहू, पत्नी।"

लेकिन कहीं भी मेरा नाम नहीं।

कहीं भी मैं नहीं।


"अब थक गयी हूं, दुनिया के रास्ते चलते-चलते,

कहीं खो गयी हूं, रिश्तों को संभालते-संभालते,

अब मैं खुद में खुद को खोजना चाहती हूं।"


ये पंक्तियाँ लिखते हुए मेरी आँखें भीग जाती हैं।

क्या यही ज़िन्दगी है?

दूसरों के लिए जियो, उनका ख्याल रखो, उनकी उम्मीदें पूरी करो, और खुद को भूल जाओ?

क्या एक औरत की कोई अपनी ख्वाहिश नहीं होती?

मुझे याद है, कभी मैं भी सपने देखा करती थी।

पढ़ाई के दिनों में, जब मैं किताबें पढ़ते-पढ़ते अपनी दुनिया बनाती थी।

वो दुनिया जिसमें मैं सिर्फ मैं होती थी—

ना कोई जिम्मेदारी, ना कोई उम्मीदों का बोझ।

बस एक उड़ान।

पर फिर शादी हुई, घर आया, बच्चे हुए।

और हर दिन मैंने खुद का एक हिस्सा गिरवी रख दिया।

पहले सपने गए, फिर शौक, फिर मुस्कान।

और अब लगता है कि मेरी आत्मा ही कहीं कैद हो गई है।

हाँ , मैं थक चुकी हूँ।

सुबह से रात तक चलती मशीन जैसी ज़िंदगी है।

कभी माँ बनकर दौड़ना, कभी पत्नी बनकर संभालना,

कभी बहू बनकर चुप रह जाना।

और इन सब में… मैं कहाँ हूँ?

इतनी थक गई कि कभी सोचती हूँ, क्या ये ज़िंदगी सिर्फ देने के लिए बनी है?

क्या मेरे हिस्से में कभी "मैं" भी आएगी?

मैं हँसती हूँ, लेकिन अक्सर वो हँसी बनावटी होती है।

लोग समझते हैं कि मैं मज़बूत हूँ।

पर मज़बूती और चुप्पी के बीच का अंतर कौन समझेगा?


आईने में खुद को देखा तो लगा,

चेहरा मेरा है, पर आँखों में "मैं" नहीं हूँ।

कभी ये आँखें सपनों से भरी थीं।

आज बस बोझ और थकान है।

Sadness

"हर दिन हर पल बस दूसरों की नजर से देखा खुद को,

बस अब खुद से मिलना चाहती हूं।"


कितनी अजीब बात है ना?

मैं खुद को भी दूसरों की नज़र से देखने लगी हूँ।

"लोग क्या सोचेंगे?"

"सब खुश हैं न?"

पर मेरा दिल खुश है या नहीं—ये सवाल पूछने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाई।

कभी आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो चेहरा तो दिखता है, पर आँखों में खालीपन।

कभी लगता है जैसे ये चेहरा किसी और का है, जिसे मैं जानती ही नहीं।

जैसे मैं खुद से अजनबी हो गई हूँ।

आईने में देखती हूँ तो लगता है, मैं वही तो नहीं हूँ जो कभी अपने सपनों में खो जाती थी?

वो लड़की कहाँ चली गई, जो अपनी दुनिया बनाना चाहती थी?

अब तो बस ज़िम्मेदारियों की परतों के नीचे दब गई हूँ।

आज मन करता है कि सब कुछ छोड़कर बस कहीं चली जाऊँ।

किसी ऐसे जहाँ में जहाँ सिर्फ मैं रहूँ, बिना किसी पहचान के।


मैं सोचती हूँ… अगर एक दिन ऐसा हो कि सब कुछ छोड़कर मैं सिर्फ अपने लिए जी लूँ तो कैसा होगा?

अगर मैं उस लड़की से मिल पाऊँ, जो कभी सपनों में खोई रहती थी…

तो शायद मैं फिर मुस्कुरा पाऊँगी, वो सच्ची मुस्कान… जो बहुत सालों से गायब है।


"जिंदगी के कुछ पल खुद से जीना चाहती हूं,

बिना किसी बंदिश के उड़ना चाहती हूं,

वो पल जो सिर्फ मेरा हो…"

सिर्फ खामोशी हो और मैं…

A happy girl

काश मैं वो पल पा सकूँ।

काश मैं किसी सुबह उठकर कह पाऊँ—"आज मैं सिर्फ अपने लिए जिऊँगी।"

कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी पहचान भी धुँधली हो गई है।

नाम तो है, लेकिन उससे जुड़ी "मैं" कहीं खो गई हूँ।

मेरा असली अस्तित्व क्या है?

क्या सिर्फ रिश्तों से जुड़ा हुआ?

या फिर कुछ ऐसा भी है जो सिर्फ मेरा है?

काश कोई दिन ऐसा हो जब मैं सिर्फ "मैं" बनकर जी सकूँ।

बस मैं, मेरी साँसें और मेरी ख्वाहिशें।

आज मैं अकेली कमरे की खिड़की पर बैठी सोच रही हूं-

बाहर चाँद है—आधा अधूरा।

जैसे मैं हूँ… आधी और अधूरी।


क्या ये चाहत गलत है?


क्या एक औरत का खुद से मिलने की ख्वाहिश करना स्वार्थ है?

नहीं… मुझे लगता है यही उसका हक़ है।

क्योंकि जब तक मैं खुद को नहीं पहचानूँगी, तब तक मेरा प्यार, मेरी परवाह भी अधूरी रहेगी।

मैं दूसरों को सिर्फ तब तक दे सकती हूँ, जब तक मेरे भीतर कुछ बाकी हो।

और अभी… मैं खाली हूँ।

मुझे पहले खुद को भरना है।


"ना रिश्तों की डोर, ना जिम्मेदारी का सहरा हो,

ना कोई सवाल हो, ना कोई जवाब हो,

ना कोई नाम हो, ना कोई पहचान हो…

बस मैं एक आत्मा जिसका ना कोई नाम ना जात हो।"

क्या मैं बहुत ज़्यादा माँग रही हूँ?

या फिर ये मेरा हक़ है—खुद से मिलने का हक़।

क्योंकि कभी-कभी लगता है,

मैं इतने सारे नामों में बँट गई हूँ कि मेरा असली नाम ही खो गया है।

क्या अजीब है ना?

लोग कहते हैं कि औरत का असली अस्तित्व उसके रिश्तों से है।

माँ है तो माँ, पत्नी है तो पत्नी, बहू है तो बहू।

पर मैं पूछना चाहती हूँ—अगर ये सारे रिश्ते हटा दिए जाएँ, तो क्या मेरा कोई नाम नहीं रहेगा?

क्या मैं सिर्फ "किसी की" होकर रह जाऊँ?

सोचती हूँ तो दिल कांप जाता है।

क्या मैं कभी उस आत्मा से मिल पाऊँगी?

क्या मैं अपने भीतर की उस रोशनी को देख पाऊँगी जो शायद अब भी जिंदा है?

कभी-कभी लगता है, अगर मैं खुद से मिल पाऊँ तो मैं और भी मजबूत बन जाऊँगी।

फिर मेरी मुस्कान नकली नहीं, सच्ची होगी।

फिर मेरा प्यार बोझ नहीं, आज़ादी होगा।

फिर मेरी पहचान अधूरी नहीं, पूरी होगी।


"मैं मिलना चाहती हूं खुद से,

मैं जानना चाहती हूं मैं कौन हूं,

क्या अस्तित्व है मेरा…"

Silent Places

कभी-कभी रात को नींद नहीं आती।

तो सोचती हूँ, अगर सच में खुद से मिल पाई,

तो शायद वो मासूमियत मिल जाएगी

जो बचपन में थी।

वो सपने… जो कभी आँखों में पलते थे।

वो ख्वाहिशें… जिन्हें मैंने धीरे-धीरे दबा दिया था।

आज मैंने अलमारी खोली तो एक पुरानी डायरी मिली।

उसमें कॉलेज वाली मेरी लिखी कविताएँ थीं।

कितनी मासूम ख्वाहिशें थीं…

कहाँ चला गया सब?

मैं तो खुद से ही बिछड़ गई।

"कुछ तो होगा मुझमें मेरा अपना,

बस वो अपना ढूंढना चाहती हूं।"


हाँ,

कुछ तो होगा मेरा अपना।

मैं सिर्फ रिश्तों और जिम्मेदारियों का दूसरा नाम नहीं हो सकती।

मेरे अंदर भी एक दुनिया है।

वो शायद सो गई है, लेकिन मरी नहीं है।

मैं ढूँढना चाहती हूँ वो "अपना"।

शायद बहुत देर से ही सही, लेकिन अब दिल में एक आवाज़ है—

मुझे खुद से मिलना है।

खुद को देखना है, समझना है, अपनाना है।

आज जब मैं अपनी बच्ची के माथे पर हाथ फेर रही थी,

तो अचानक लगा…

अगर मैं खुद से न मिल पाई,

तो इसे क्या दूँगी?

एक खाली औरत?

नहीं, मुझे जीना है—

ताकि ये भी सीखें कि खुद से मिलना कितना ज़रूरी है।

अब मैं खुद से मिलना चाहती हूं,

अब मैं खुद में खुद को खोजना चाहती हूं।।",


शायद आज का ख्सयाल बसे सच्चा ख्याल है।

आज मैंने माना कि मैं टूटी नहीं हूँ,

बस बिखरी हुई हूँ।

और अब मुझे बिखरे टुकड़ों को जोड़ना है।

मैं आज एक वादा खुद से करती हूँ।

अब मैं खुद को खोकर किसी और की खुशी नहीं ढूँढूँगी।

मैं पहले खुद को खोजूँगी।

और जब मैं मिल जाऊँगी खुद से… तब मैं सबको और भी ज्यादा प्यार दे पाऊँगी।

क्योंकि सबसे खूबसूरत मुलाक़ात यही होगी—एक दिन आएगा....जब मैं अपने ही अंदर वो लड़की ढूँढ लूँगी

जो अब भी चुपचाप मुझे पुकार रही है।

और उस दिन…

मैं सच में खुद से मिल जाऊँगी।

एक दिन आएगा… जब मैं सच में खुद से मिल पाऊँगी।

और उस दिन… शायद मैं पहली बार पूरी हो जाऊँगी।

हाँ, यही ख्वाहिश है मेरी।

ना कोई बड़ी मांग, ना कोई महल, ना कोई दौलत।

बस खुद से मिलने की ख्वाहिश।


"कुछ तो होगा मुझमें मेरा अपना,

बस वो अपना ढूंढना चाहती हूं,

अब मैं खुद से मिलना चाहती हूं,

अब मैं खुद में खुद को खोजना चाहती हूं।।"

Girl's writing

अगर तुम ये पढ़ रही हो—


तो एक पल रुककर खुद से पूछो—"मैं कौन हूँ?"

और फिर हिम्मत करो… खुद से मिलने की।


तो आज ही अपने दिल से एक वादा कीजिए—

चाहे एक दिन, एक घंटा या सिर्फ एक पल—

वो समय सिर्फ खुद को दीजिए।


"जब आप खुद से मिलेंगे,

तभी दुनिया भी आपको आपके असली रूप में जान पाएगी।"


खुद को खोजती हुई एक औरत।





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